बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
हर सिलह शोर इंगलिस्ताँ का
घर से बाज़ार में निकलते हुए
ज़ोहरा होता है आब इंसाँ का
चौक जिस को कहें वो मक़्तल है
घर बना है नमूना ज़िंदाँ का
शहर-ए-देहली का ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक
तिश्ना-ए-ख़ूँ है हर मुसलमाँ का
कोई वाँ से न आ सके याँ तक
आदमी वाँ न जा सके याँ का
मैं ने माना कि मिल गए फिर क्या
वही रोना तन ओ दिल ओ जाँ का
गाह जल कर किया किए शिकवा
सोज़िश-ए-दाग़-हा-ए-पिन्हाँ का
गाह रो कर कहा किए बाहम
माजरा दीदा-हा-ए-गिर्यां का
इस तरह के विसाल से यारब
क्या मिटे दिल से दाग़ हिज्राँ का
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