ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना
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आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
कोई वीरानी सी वीरानी है
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
कब वो सुनता है कहानी मेरी
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
फिर इस अंदाज़ से बहार आई