ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ
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मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की