ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे
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फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
है ख़बर गर्म उन के आने की
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है