ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे वफ़ा किए
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है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर