ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए
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हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'