यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
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मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
फ़रियाद की कोई लय नहीं है
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
हुस्न-ए-मह गरचे ब-हंगाम-ए-कमाल अच्छा है
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है