या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे
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जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन