विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हज़ार बार तू जा सद-हज़ार बार आ जा
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हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
कोई उम्मीद बर नहीं आती
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है