वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की
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आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'