वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को
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यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है