उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए
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गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ