उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
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पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें