उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए
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ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते