था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था
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कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का
बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला