तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
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ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल