ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को
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मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक
ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका