सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए
Faiz Ahmad Faiz
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मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी