शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम
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जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से