सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का
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उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद