रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में
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या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया