रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के
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मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर