क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं
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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
न सुनो गर बुरा कहे कोई
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है