पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है
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न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे