पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
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छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना