पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
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है ख़बर गर्म उन के आने की
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना