फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया
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है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है