परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
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हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो