न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
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बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए