न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
गरचे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा
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वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
जराहत तोहफ़ा अल्मास अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में