मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
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मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ