मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
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बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
'ग़ालिब' हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
जान दी दी हुई उसी की थी