मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है
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दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर