लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए
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मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
है ख़बर गर्म उन के आने की
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह