क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ
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रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'