क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की
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फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही