कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ
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क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन