कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
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दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा