कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
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क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बे-दाद कि हम
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
बात पर वाँ ज़बान कटती है
क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना