खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
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बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला