ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से
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देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले