ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है
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करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं