करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
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क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'