काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे
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मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की