कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
यही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं
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लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को