कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
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ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
मरते हैं आरज़ू में मरने की
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला