काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
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ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं