जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
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क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा