जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की
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जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़