जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
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हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद